27 का चुनाव जैसे जैसे करीब आ रहा है वैसे वैसे उत्तर प्रदेश की राजनीति बदलती जा रही है .लखनऊ पहुंचे अमित शाह के एक बयान ने यूपी के सियासत में हलचल मचा दी हैं .तमाम लोग अमित शाह के मित्र वाले बयान पर तरह तरह की बातें कर रहे हैं ,लेकिन आज हम आपको पूरी सच्चाई बताएँगे इस खबर को लेकर जिसमे योगी को हटाने की बात कही जा रही हैं ,तो चलिए पूरी कहानी हम आपको बताते है कि क्या वास्तविकत में योगी को हटाना संभव हैं ,या फिर केशव ही पार्टी से दरकिनार कर दिए जायेंगे .उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक दिलचस्प मोड़ तब आ गया था ।जब 2022 में भाजपा दोबारा सत्ता में वापस लौटी थी, तब यह चर्चा तेज़ थी कि केशव प्रसाद मौर्य ने मुख्यमंत्री बनने की गुप्त इच्छा पाली थी।
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सूत्र बताते रहे कि उन्होंने दिल्ली दरबार में अपने समीकरण साधने की भरपूर कोशिश की थी। लेकिन परिणामस्वरूप न सिर्फ वे खुद चुनाव हार गए, बल्कि योगी आदित्यनाथ के सामने उनकी राजनीतिक हैसियत और सीमाएं भी उजागर हो गईं।बीजेपी ने उन्हें उपमुख्यमंत्री पद देकर शांत जरूर किया, लेकिन असल सत्ता की चाभी अब भी अकेले योगी के पास है। और अब, जब लोकसभा चुनावों में यूपी से भाजपा को भारी झटका लगा है, पार्टी एक बार फिर आत्ममंथन की स्थिति में है। ऐसे में चर्चा फिर तेज़ है कि क्या केशव मौर्य को किनारे लगाने की तैयारी हो रही है?राजनीति में महत्वाकांक्षा कोई गुनाह नहीं, लेकिन रणनीति और समय की समझ ही नेता को बड़ा बनाती है।केशव मौर्य ने 2017 में भाजपा को ओबीसी वोटबैंक दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। लेकिन जैसे ही योगी सीएम बने और मौर्य को डिप्टी की कुर्सी मिली, दोनों के बीच दूरी साफ दिखने लगी।2022 चुनावों के बाद, अंदरखाने यह चर्चा गर्म थी कि केशव मौर्य ने एक बार फिर खुद को सीएम फेस के तौर पर दिल्ली में प्रोजेक्ट करने की कोशिश की। परंतु हाईकमान ने फिर से योगी पर भरोसा जताया – और यह मौर्य की दूसरी बड़ी असफलता बनी।हाल ही में दिल्ली में केशव मौर्य और अमित शाह की मुलाकात ने फिर से चर्चाओं को हवा दी। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मौर्य खुद को योगी के विकल्प के तौर पर फिर से खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।

लेकिन सवाल यह है कि क्या अब पार्टी नेतृत्व उन्हें गंभीरता से लेता है?भाजपा जानती है कि उत्तर प्रदेश में अब जातीय राजनीति पहले जितनी सरल नहीं रही। ओबीसी मतदाता अब आंख मूंदकर भाजपा को वोट नहीं दे रहा, और यही वो बिंदु है जहां मौर्य की उपयोगिता भी सीमित होती जा रही है।भाजपा के लिए यह समय रणनीतिक है। यूपी में संगठन को नया रूप देना है, ज़मीनी पकड़ को मज़बूत करना है और विपक्ष की एकजुटता का जवाब भी खोजना है। ऐसे में पार्टी अब फालतू टकराव नहीं चाहती। अगर केशव मौर्य लगातार “मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा” को आगे बढ़ाते रहे, तो यह भाजपा की रणनीति के खिलाफ जाएगा।ऐसी स्थिति में पार्टी उन्हें सिर्फ एक प्रतीकात्मक ओबीसी चेहरा बनाकर सीमित कर सकती है – या पूरी तरह किनारे कर सकती है।योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता, ज़मीनी पकड़ और साफ़ राजनीतिक संदेश भाजपा की ताकत बने हुए हैं।वहीं, केशव मौर्य एक ऐसे नेता बनते जा रहे हैं, जो अपने ही सियासी पिच पर बार-बार रनआउट हो रहे हैं।अगर जल्द उन्होंने अपनी भूमिका और दिशा नहीं बदली, तो यह कहने में संकोच नहीं कि जो योगी को हटाने चले थे, वो अब खुद यूपी की सियासत से हटाए जा सकते हैं।”