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केशव बनाम योगी की लड़ाई में कूदे राजनाथ! मोदी-शाह खेमे में मची हलचल?

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उत्तर प्रदेश की सियासत एक बार फिर उबाल पर है। इस बार मुद्दा सिर्फ अंदरूनी कलह नहीं है, बल्कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के लिए असहज करने वाली स्थिति बन गई है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के बीच लंबे समय से चली आ रही अदृश्य खींचतान अब खुलकर सतह पर आ गई है। लेकिन इस लड़ाई में नया मोड़ तब आया जब देश के रक्षामंत्री और लखनऊ से सांसद राजनाथ सिंह खुलकर योगी आदित्यनाथ के समर्थन में आ खड़े हुए।इस हस्तक्षेप से न सिर्फ यूपी की राजनीति में हलचल मची है, बल्कि दिल्ली दरबार विशेषकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खेमे में भी बेचैनी साफ देखी जा सकती है।राजनाथ सिंह को भाजपा का ‘मर्यादित’ और ‘संघीय संतुलन’ वाला चेहरा माना जाता है। वे न तो अक्सर सार्वजनिक रूप से पक्ष लेते हैं, न ही किसी खेमेबाजी का हिस्सा बनते हैं। लेकिन जब उन्होंने योगी आदित्यनाथ के प्रशासन और नेतृत्व की खुलेआम सराहना की, तो यह महज एक बयान नहीं था यह साफ संकेत था कि पार्टी के भीतर योगी के खिलाफ चल रही साज़िशों को अब टक्कर दी जाएगी।राजनाथ की यह एंट्री उन तमाम समीकरणों को उलट सकती है जो योगी को दरकिनार करने की कोशिश में रचे जा रहे थे।

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नरेंद्र मोदी और अमित शाह लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी को एक केंद्रीकृत नेतृत्व के तहत चला रहे हैं। सभी राज्यों में मुख्यमंत्री बदलने, चेहरों को बार-बार बदलने और नेतृत्व को ‘दिल्ली-निर्धारित’ बनाए रखने की रणनीति बीजेपी का स्टाइल बन चुकी है। लेकिन योगी आदित्यनाथ इस ढांचे में फिट नहीं बैठते।योगी स्वतंत्र फैसले लेते हैं, जनता में उनकी सीधी पकड़ है, और वे संघ व गोरखनाथ पीठ से एक समानांतर वैचारिक ताकत भी रखते हैं।राजनाथ सिंह की ओर से समर्थन मिलने के बाद योगी अब पार्टी के भीतर एक ‘बिन मांगे लोकप्रिय नेता’ की तरह उभरे हैं — जिसे पार्टी ने खड़ा नहीं किया, लेकिन जनता ने उठा लिया।अब सवाल उठता है कि केशव मौर्य हारता हुआ चेहरा बन गए हैं या फिर बलिदान का मोहरा?केशव प्रसाद मौर्य एक समय ओबीसी राजनीति के केंद्र में थे। लेकिन अब वे योगी विरोध की मुहिम में शामिल होकर धीरे-धीरे खुद को राजनीतिक रूप से कमजोर कर रहे हैं।विरोध की राजनीति में वे अकेले पड़ते जा रहे हैं। राजनाथ सिंह के हस्तक्षेप ने उनके लिए स्थिति और भी जटिल कर दी है।

अब पार्टी में ऐसा भी कहा जा रहा है कि कहीं मौर्य को मोहरा बनाकर किसी और का खेल तो नहीं खेला जा रहा? क्योंकि ये बात हमेश से बीजेपी में चलती रही है कि मोदी के बाद कौन होगा जो जो उनकी जिम्मेदारी और लोकप्रियाता को संभालेगा, तो इसमें सबसे पहला नाम योगी आदित्यनाथ का आता है, जो शाह को पसंद नहीं आता है, ऐसा राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है इसी लिए केशव को योगी के बार बार मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा हैं, बीते दिनों अमित शाह ने साफ तौर केशव अपना मित्र भी बताया है, जिसको लेकर कई तरीके की बातें सियायत की गलियारों में हुई हैं, लेकिन इन सब बातों के पार्टी के लिए बड़ा सवाल ये भी है कि 2027 की तैयारी किसके भरोसे होगी? तो इस सवाल का जवाब का जवाब सुन लीजिए,,,,अब बीजेपी के सामने असली सवाल है कि 2027 के विधानसभा चुनावों में पार्टी की कमान किसके हाथ में हो?

क्या पार्टी योगी को और स्वतंत्र होकर चलने देगी?या फिर दिल्ली से नियंत्रित नेता को सामने लाने की पुरानी रणनीति पर लौटेगी? और अगर योगी नाराज़ हुए तो क्या वे वैकल्पिक हिंदुत्व नेतृत्व बनकर उभर सकते हैं?राजनाथ सिंह का समर्थन यह दर्शाता है कि योगी अब अकेले नहीं हैं — और पार्टी में एक ऐसा धड़ा तैयार हो चुका है जो बीजेपी को केवल ‘दिल्ली की मुहर’ से नहीं, जनता की ताकत से आगे बढ़ाना चाहता है।केशव बनाम योगी की लड़ाई अब सिर्फ दो नेताओं की जंग नहीं रह गई है। यह भारतीय जनता पार्टी के भीतर नेतृत्व, नियंत्रण और वैचारिक स्वायत्तता की लड़ाई बन चुकी है।राजनाथ सिंह का हस्तक्षेप सिर्फ योगी के पक्ष में नहीं है — यह पूरे संगठन को चेतावनी है कि अगर जनाधार वाले नेताओं को कमजोर किया गया, तो पार्टी की जमीन ही खिसक सकती है।और अब, अमित शाह और नरेंद्र मोदी को तय करना है — वे संगठन की ताकत बचाएंगे या सत्ता की केंद्रीकृत राजनीति?

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