उत्तर प्रदेश की राजनीति एक बार फिर गरमाई हुई है। बीते कुछ हफ्तों से बीजेपी के भीतर “योगी हटाओ मिशन” की खबरें ज़ोर पकड़ती रहीं। राजनीतिक गलियारों में ये चर्चा आम थी कि केंद्रीय नेतृत्व के कुछ धड़े मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली और राजनीतिक वर्चस्व से असहज महसूस कर रहे हैं। खासकर अमित शाह और उनके करीबी माने जाने वाले कुछ नेता यूपी में “परिवर्तन” के पक्षधर बताए जा रहे थे।चाहें वो बीते दिनों केशव को अमित शाह द्वारा मित्र बताना हो या फिर ट्रांफर की खबरों को लेकर हो ,,योगी ने बिना शीर्ष नेतृत्व के सुने अपने ढंग से यूपी में पोस्टिंग और ट्रांसफर किये हैं ,लेकिन हाल के घटनाक्रमों से यह साफ़ होता जा रहा है कि “योगी हटाओ मिशन” अब परदे के पीछे जा चुका है, और शाह की टीम फिलहाल बैकफुट पर है।
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सवाल अब ये है कि आखिर कैसे फेल हुआ ‘योगी हटाओ’ मिशन?. इसका सीधा और सरल जवाब है योगी का जनता में लोकप्रियता अभी भी बरकरार है योगी आदित्यनाथ की प्रशासनिक पकड़ और ‘ठोक दो’ वाली छवि प्रदेश की जनता में अब भी लोकप्रिय है। अपराध पर नियंत्रण और बुलडोजर राजनीति ने एक खास वर्ग में उन्हें मजबूत जनसमर्थन दिया है।दूसरी बात योगी का संगठन में में वर्चस्व कायम है .यूपी बीजेपी का एक बड़ा तबका योगी के साथ खड़ा दिखता है। चाहे वह संगठन के पुराने नेता हों या विधायक, योगी को हटाने की कवायद को खुले समर्थन का अभाव दिखा।तीसरी बात योगी को संघ का अप्रत्यक्ष समर्थन हासिल है RSS का झुकाव अक्सर स्थायित्व और अनुशासन की ओर रहता है। योगी को हटाने से पैदा होने वाली अशांति को लेकर संघ ने दूरी बनाए रखी या मौन समर्थन दिया।मोहन भागवत कई बार योगी से मुलाकात किये है। मोहन भागवत शाह से ज्यादा इस वक्त योगी आदित्य नाथ के करीब हैं। मोहन भागवत योगी में एक अच्छा शासक दिखता है ,,,तो अब सवाल उठता है कि क्या शाह की टीम हुई बैकफुट पर हो गयी है ,तो इसका जवाब है ,बिल्कुल शाह यूपी वो नहीं कर पा रहा है जो करना चाहते हैं। केंद्र की राजनीति में अमित शाह की पकड़ भले मजबूत हो, लेकिन यूपी जैसे विशाल राज्य में योगी आदित्यनाथ की स्वतंत्र सत्ता-संरचना बनी हुई है। शाह के कुछ विश्वासपात्रों द्वारा योगी के विकल्पों को तलाशने की खबरें सामने आईं, लेकिन कोई ठोस दावेदार न उभरने से यह योजना ठंडी पड़ गई।यह सवाल अब अहम हो गया है—क्या यह सिर्फ अस्थायी शांति है, या दोनों पक्षों के बीच कोई राजनीतिक समझौता हुआ है?

संभव है कि शाह और मोदी कैंप ने फिलहाल 2027 की रणनीति तक योगी को छेड़ने से परहेज करने का फैसला किया हो। बदले में योगी को दिल्ली की राजनीति में किसी भूमिका का संकेत दिया गया हो।लेकिन यह भी उतना ही सच है कि दोनों धड़ों के बीच शक्ति-संतुलन की लड़ाई जारी है। आने वाले महीनों में लोकसभा सीट बंटवारे से लेकर राज्य संगठन में फेरबदल इस टकराव की अगली झलक हो सकते हैं।अब इस पूरी कहानी का निष्कर्ष क्या है,तो वो भी जान लीजिये “योगी हटाओ मिशन” भले ही इस दौर में विफल रहा हो, लेकिन यह मान लेना जल्दबाज़ी होगी कि बीजेपी में सब कुछ शांत है। उत्तर प्रदेश भारतीय राजनीति का दिल है, और यहां की हर हलचल दिल्ली की सत्ता को झकझोर सकती है।अगले विधानसभा और लोकसभा चुनावों तक यह लड़ाई कभी पर्दे के पीछे, तो कभी खुले मंच पर चलती रहेगी। देखना यह होगा कि बीजेपी इस अंदरूनी रस्साकशी को कैसे संभालती है—टकराव से या फिर समझौते से?फ़िलहाल 24 जून को एक बार यूपी की राजनीति में गर्मी देखने को मिलेगी ,क्योंकि एक ही मंच एक बार फिर अमित शाह ,केशव ,बृजेश पाठक और योगी आदित्यनाथ दिखाई देने वाले हैं