भारतीय जनता पार्टी में सब कुछ सामान्य दिखता है, लेकिन भीतर ही भीतर एक बड़ा सियासी उबाल पक रहा है—खासतौर पर उत्तर प्रदेश में। हाल ही में गृह मंत्री अमित शाह ने उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को सार्वजनिक मंच से “मित्र” कहा, और अब केशव ने एक मीडिया के मंच से अमित शाह को “गुरु” कहकर संबोधित कर डाला है . केशव ने अपने बयान में कहा है कि शाह का उन्हें मित्र कहना उनका बड़प्पन है, लेकिन मेरे लिए वह गुरु हैं, जिनसे मैंने राजनीति के गुर सीखे हैं।मौर्य ने बताया कि जब अमित शाह यूपी प्रभारी थे, तब उन्होंने उनके मार्गदर्शन में 2014 में फूलपुर से चुनाव लड़ा और जीता। बाद में जब शाह बीजेपी अध्यक्ष बने, तो उन्होंने ही मौर्य को यूपी बीजेपी अध्यक्ष बनाया।एक इंटरव्यू में मौर्य ने अमित शाह को वर्तमान राजनीति का चाणक्य बताते हुए कहा,VHP में संगठन का अनुभव था, लेकिन राजनीति में बड़ा काम कैसे होता है, ये अमित शाह से सीखा। मैं उन्हें शिक्षक की तरह मानता हूं और उनके मार्गदर्शन में आगे भी काम करता रहूंगा।मौर्य ने कहा,जिनसे सीखा उन्हें गुरु कहते हैं और शाह जी ने मुझे सिखाया कि राजनीति में रणनीति कैसे बनती है। उनका मित्र कहना उनके स्नेह और उदारता का प्रतीक है . पहली नजर में यह सम्मान और निकटता का मामला लगता है, लेकिन राजनीति की ज़ुबान में इसे सीधे-सीधे सियासी संदेश माना जा रहा है—खासकर तब, जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय नेतृत्व के बीच तनातनी की सुगबुगाहट पहले से ही हवा में है .
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अमित शाह और केशव मौर्य की ये ‘गुरु-शिष्य’ की जोड़ी कोई नई नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर 2017 के विधानसभा चुनाव तक, दोनों नेताओं ने मिलकर यूपी में भाजपा की ऐतिहासिक वापसी कराई। लेकिन आज जो सवाल खड़े हो रहे हैं, वो इससे आगे के हैं,,कि क्या यह जोड़ी फिर से किसी नए राजनीतिक समीकरण की जमीन तैयार कर रही है?केशव मौर्य का बार-बार खुद को हाशिए पर महसूस करना, योगी सरकार में उनकी सीमित भूमिका, और अब शाह के साथ उनकी बढ़ती नजदीकियां इस बात की गवाही देती हैं कि पार्टी के भीतर एक सामरिक पुनर्संतुलन की प्रक्रिया चल रही है।पार्टी के अंदर जो प्रक्रिया गुपचुप तरीके से चल रही उसे भले ही कोई न जनता हो लेकिन योगी आदित्यनाथ को इसकी भनक है ,,तो अब सवाल उठता है कि अगर योगी को इसकी भनक है तो योगी की अगली चाल क्या होगी? तो इस सवाल का जवाब भी सुन लीजिये ,,,,योगी आदित्यनाथ को राजनीति में कमज़ोर आंकना अब तक हर किसी को भारी पड़ा है। चाहे संघ हो या पार्टी हाईकमान, योगी ने हमेशा यह जता दिया है कि यूपी में उनकी पकड़ न केवल प्रशासनिक है, बल्कि जनभावनाओं पर भी उनकी मजबूत पकड़ है। ऐसे में यदि अमित शाह और केशव मौर्य की जोड़ी भाजपा के भीतर कोई नया ध्रुव बनाती है, तो यह योगी के लिए सिर्फ चुनौती नहीं, बल्कि एक अवसर भी हो सकता है—अपनी ताकत को और धार देने का।योगी आदित्यनाथ का ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि वे कभी भी सीधी टक्कर देने से नहीं कतराते। उन्हें पता है कि सत्ता सिर्फ कुर्सी से नहीं, जन समर्थन और संगठन पर पकड़ से चलती है।

ऐसे में आने वाले महीनों में वे भाजपा के भीतर बड़ी सर्जरी कर सकते हैं—नए चेहरों को बढ़ावा देकर, ‘शाह-केशव खेमे’ को संतुलित करने का प्रयास कर सकते हैं।लेकिन इन सब के बावजूद बीजेपी के लिए खतरे की घंटी भी है ये सारी बातें वजह ये है कि जहां एक ओर लोकसभा चुनावों के बाद बीजेपी को उत्तर प्रदेश से अपेक्षित सीटें नहीं मिलीं, वहीं दूसरी ओर पार्टी के भीतर यह भी चिंता है कि यदि शीर्ष नेता आपसी शक्ति प्रदर्शन में उलझे रहे, तो इसका असर 2027 के विधानसभा चुनावों और 2029 के आम चुनावों पर पड़ सकता है,,,गुरु-शिष्य’ की इस राजनीति में यदि संगठन का संतुलन डगमगाया, तो योगी समर्थक खेमा इसे ‘आंतरिक षड्यंत्र’ की तरह ले सकता है, जिससे पार्टी के अंदर ही अंदर भाजपा बनाम योगी जैसा माहौल बन सकता है,,,,अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगा कि शाह-केशव की जोड़ी बीजेपी के भीतर नया नेतृत्व तैयार कर रही है या सिर्फ संगठनात्मक संतुलन साध रही है। लेकिन यह साफ है कि योगी आदित्यनाथ इस खेल को चुपचाप नहीं देखेंगे। उन्होंने हमेशा खुद को ‘एकला चलो’ की नीति से ऊपर उठाया है, लेकिन जब चुनौती सामने हो, तो उनका ‘राजनीतिक प्रतिकार’ तीखा होता है।अगले कुछ महीने उत्तर प्रदेश ही नहीं, भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी निर्णायक हो सकते हैं।