काशी, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक और सांस्कृतिक कर्मभूमि माना जाता है, एक बार फिर सियासी केंद्र में है। इस बार मंच पर देश के चार मुख्यमंत्री—मध्य प्रदेश के मोहन यादव, उत्तराखंड के पुष्कर सिंह धामी, छत्तीसगढ़ के विष्णुदेव साय और उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ—साथ मौजूद थे। मंच के केंद्र में गृहमंत्री अमित शाह थे, लेकिन जो सबसे ज्यादा चर्चा में रहा, वह था योगी आदित्यनाथ का प्रभाव, जिसकी छाया में पूरा कार्यक्रम नजर आया।इस बैठक में उन मुद्दों पर चर्चा की गयी जो बिना केंद्र की सहायता के राज्य सुलझा नहीं सकते. इसमें राज्य में संपत्ति से लेकर पानी या सीमा विवाद जैसे मुद्दे शामिल हैं. इस बैठक में पार्टी को और कैसे मजबूत करना है इसको लेकर भी बातें हुई हैं ,लेकिन इस बैठक का असली मतलब क्या है आइये हम आपको बताते हैं,,,, राजनीति में संकेत और प्रतीकशास्त्र की अहम भूमिका होती है। काशी में हुए इस साझा मंच ने संकेत तो दिखाया एकता का, लेकिन भीतर ही भीतर कई असंतुलन भी उजागर हो गए। गृहमंत्री अमित शाह भले ही इस मंच के सबसे वरिष्ठ और रणनीतिक नेता रहे हों, लेकिन जनता की निगाहें और कार्यकर्ताओं की नज़दीकियाँ लगातार योगी आदित्यनाथ की ओर झुकी रहीं है ,,,,चाहे मंच पर भाव-भंगिमा हो, भीड़ की प्रतिक्रियाएं हों या मीडिया का फोकस—हर जगह योगी की ताकत का प्रदर्शन स्वाभाविक रूप से होता रहा है .
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यह वही योगी हैं, जिनके खिलाफ बीते कुछ महीनों में बीजेपी के भीतर ही कुछ खेमे सक्रिय हुए थे। लेकिन काशी के इस दृश्य ने साफ कर दिया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में योगी का कद कम नहीं हुआ, बल्कि और विशाल हुआ है।अमित शाह पार्टी के ‘चाणक्य’ कहे जाते हैं। उनका हर दौरा, हर संवाद राजनीतिक अर्थ लिए होता है। लेकिन इस बार उनके चेहरे पर जो संदेश झलक रहा था, वह केवल आत्मविश्वास नहीं बल्कि चिंता से भी भरा हुआ दिखा।बीजेपी की रणनीतिक दृष्टि से यह सवाल अहम है—क्या योगी अब पार्टी के लिए एक क्षेत्रीय नेता से अधिक हो चुके हैं? क्या वो अब ‘मोदी के बाद’ की सूची में सबसे ऊपर हैं?यदि यह सत्य है, तो अमित शाह की बेचैनी स्वाभाविक है। क्योंकि संघ और पार्टी नेतृत्व किसी एक चेहरे पर पूरी निर्भरता नहीं चाहता, जबकि योगी का चेहरा अब न सिर्फ यूपी बल्कि पूरे देश में बीजेपी समर्थकों के बीच लोकप्रियता बटोर रहा है।2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश से 80 में सेसिर्फ 33 सीटें जीतीं, लेकिन यह संख्या 2014 और 2019 की तुलना में काफी कम रहा । इसीलिये पार्टी को यह भी अहसास है कि अब 2027 के विधानसभा चुनावों की तैयारी शुरू हो चुकी है। ऐसे में योगी का असर न केवल बनाए रखना, बल्कि उसको दिशा देना भी ज़रूरी होगा।शाह चाहते हैं कि योगी पार्टी की लाइन में रहें, लेकिन योगी की शैली है स्वतंत्र और स्पष्ट। उन्होंने ना तो 2024 में पार्टी के भीतर असहमति से घबराया, ना ही विरोधी धड़ों की हलचल से डिगे।कहा ये भी जाता है कि बीजेपी ने योगी की बातें नहीं मानी इस लिये बीजेपी को यूपी में नुकसान का सामना करना पड़ा ,,,दरअसल योगी ने 35 प्रत्याशियों की लिस्ट केंद्र की नेतृत्व को भेजी थी ,,जिसमे योगी ने कहा कि प्रदेश इन चेहरों के ऊपर दांव लगाना चाहिये ,लेकिन शाह ने अपने मन मुताबिक उत्तर प्रदेश के लोक सभा चुनाव प्रत्याशी उतारे थे। जिसका परिणाम ये रहा कि बीजेपी बुरी तरीके यूपी में चुनाव हार गई .

अखिलेश यादव को जिसका भरपूर फ़ायदा मिला ,,तो ये कहने में कोई गुरेज नहीं है कि अगर यूपी में बीजेपी चुनाव जीतना चाहती है तो उसे योगी आदित्य नाथ के नेतृव्त में चुनाव लड़ना पड़ेगा ,,,इन सब बातों के आलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस समय पूरी तरह मौन है। लेकिन वह यह देख रहा है कि बीजेपी के भीतर शक्ति संतुलन किस दिशा में जा रहा है। योगी के बढ़ते कद से पार्टी का हिंदुत्व चेहरा मजबूत हो रहा है, लेकिन साथ ही केंद्रीय नेतृत्व के लिए यह चुनौती भी है कि कैसे ‘एकछत्र नेतृत्व’ की छवि को संतुलित किया जाए।काशी में हुआ यह शक्ति प्रदर्शन, दरअसल पार्टी के भीतर चल रही सत्ता की खींचतान का दृश्य रूप था। अमित शाह भले ही पार्टी के रणनीतिक स्तंभ हों, लेकिन योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता और राजनीतिक पकड़ फिलहाल चुनौती देना किसी के लिए आसान नहीं है।यह बैठक केवल सत्ता की एक तस्वीर नहीं दिखाता, बल्कि बीजेपी की आगामी राजनीति का रुख भी बताता है—जहां एक तरफ केंद्र योगी को साधना चाहता है, वहीं योगी खुद को किसी के अधीन नहीं रखना चाहते।काशी की राजनीति ने यह फिर साबित कर दिया कि योगी अब सिर्फ मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि एक राजनीतिक ध्रुव बन चुके हैं—और अमित शाह के लिए यह सबसे बड़ी बेचैनी की वजह है।